डा. ऋषि तिवारी
संगठित होना, जीवन यापन के लिए, समाज की प्रगति के लिए, संस्कृति को सुरक्षित रखने के लिए सदैव ही आवश्यक पहलू माना गया है. प्राचीन सभ्यता से वर्तमान परिवेश का अध्ययन करने पर यह देखा जा सकता है कि जो समाज अथवा वर्ग संगठित होकर रहता है, वह सफलता कि उचाईयों को अवश्य प्राप्त करता है. संगठित एवं सयुंक्त रहने का कार्य केवल मनुष्य ही नहीं करते वरन जानवरों में भी इस सस्कृति को देखा एवं परखा जा सकता है. समाज का जो वर्ग संगठित नहीं होगा वह पतन को अवश्य प्राप्त होता है, अन्य वर्ग उसका शोषण विभिन्न तरीकों से करते रहे हैं एवं करते रहेंगे. समाज शास्त्री भी सही वजह से समय-समय पर सयुंक्त परिवारों से होने वाले लाभों कि वकालत करते रहते हैं एवं विभिन्न प्रकार से इस दिशा में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते रहते हैं.
आधुनिक समाज विभिन्न वर्ग, जातियों, धर्म, सम्प्रदायों में विभाजित है एवं हर वर्ग, जाति, धर्म एवं संप्रदाय के हितों कि रक्षा एवं कल्याण के लिए उनका संगठित होना अति आवश्यक है. यदि वर्ग, संप्रदाय, धर्म व्यवसाय विशेष के लोग संगठित नहीं होंगे या निज स्वार्थ में संलग्न होंगे तो देर सवेर हानि का सामना करना ही पड़ेगा एवं उज्जवल भविष्य पर संकट के बादल सदैव ही मंडराते रहेंगे.
शिक्षा, धर्म, दर्शन,एवं संस्कृति के विकास, प्रचार एवं प्रसार में भारत का स्थान सदियों से ही विश्व गुरु का रहा है. एवं वर्तमान काल में भी दर्शन एवं सस्कृति के क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभा रहा है. साक्ष्य के रूप में नालंदा एवं तक्षिला जैसे प्राचीनतम विश्व विद्यालयों के गौरवशाली इतहास का अध्यन किया जा सकता है. और भारत को विश्व गुरु बनाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका – ज्ञान, अनुभवों एवं प्रचुर संस्कृति को अपने में समेंटे हुए विभिन्न पुस्तकालयों ने. कहा जाता है कि पुस्तकालयों के संग्रह को देखकर, उस समाज/ देश कि बौद्धिक सम्बृद्धि का अंदाज़ लगाया जा सकता है.
एक समय में भारत में पुस्तकालयों का गौरवशाली इतिहास रहा है. परन्तु अफ़सोस कि बात है कि स्वतंत्रता के 70 वर्षों में पुस्तकालयों कि स्थिति बहुत ही दयनीय हो चली है. पुस्तकालयों कि स्थिति भी देश में नदियों, तालाबों जैसी होती जा रही है- या तो धीमे धीमे अपने में सिमटती जा रही हैं या दलदल और गंद कि घुटन में मृतपराय सी हो रही है. बौद्धिक जीवन कि जीवन-रेखा कहे जाने वाले पुस्तकालय आज घुट-घुट कर मर रहे है या यूँ कहा जाए कि उनका कत्लेआम किया जा रहा है. एक ही बात है. प्राप्त जानकारी के मुताबिक अकेले बिहार प्रदेश में 1930 तक लगभग 6000 पुस्तकालय हुआ करते थे जो कि आ सिमटकर 400 पर रह गए है. एवं वर्तमान में प्रतिवर्ष सिर्फ दस लाख रुपए के आसपास इन पुस्तकालयों में नयी पुस्तकों पर खर्च किया जाता है.
औसतन सात पैसा प्रति व्यक्ति
उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश में सिर्फ ७० सार्वजानिक पुस्तकालय है और दुखद यह है कि ये भी बीमारू है. पुस्तकालयों के खस्ता हाल के लिए सिर्फ सरकारें ही जिम्मेवार नहीं है बल्कि समाज का हर वर्ग और विशेष रूप से पुस्तकालय से सम्बंधित लोग और उनके संगठन भी जिम्मेवार है. दुर्दशा सिर्फ सार्वजानिक पुस्तकालयों कि ही नहीं है बल्कि शासकीय, शैक्षणिक संसथानों के पुस्तकालयों के हालात भी कुछ ऐसे ही है. अभी हाल कि ख़बरों के मुताबिक देश कि राजधानी में स्थित एक विख्यात विश्वविद्यालय कि लाइब्रेरी के सालाना बजट में 80 प्रतिशत कि कटौती कर दी गई.
पूरे देश में केवल शासकीय शैक्षणिक संस्थानों में ही तकरीबन 60 प्रतिशत पुस्तकालय कर्मियों के पद काफी समय से रिक्त पड़े हुए हैं और कई पदों पर गैर पुस्तकालय विशेषज्ञों पर पुस्तकालय संचालन की जिम्मेवारी है.
भारत में शिक्षा के क्षेत्र में निजी संस्थानो के आने से पुस्तकालयों के विकास के लिए एक नया रास्ता निकला एवं पुस्तकालय कर्मियों के लिए नए पदों का सृजन हुआ. देश में वर्तमान में लगभग एक लाख के आसपास पुस्तकालय कर्मी विभिन्न प्रकार के गैर सरकारी शिक्षण संस्थाओं में अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं. नए अवसर तो मिले हुए परंतु अधिकांश गैर-सरकारी संस्थानों में पुस्तकालय कर्मियों को सम्मानजनक वेतन न मिलने के कारण वे कुंठित जीवन जीते हैं एवं उनकी आवाज सुनने एवं उनके हक की बात करने लोग नहीं हैं. उनकी हालत ऐसी है कि वे यदि स्वयं कुछ अपने अधिकारों के बारे में आवाज बुलंद करते हैं तो उनकी नौकरियां भी चली जाती है और वे बेरोजगार हो जाते हैं. कम पगार एवं नौकरी का भय उनको कुंठित कर देता है एवं इनके हक के लिए लड़ने वाला, आवाज उठाने वाला जब कोई नहीं होता है तो यह अपने आप को अकेला एवं बेसहारा महसूस करते हैं.
ऐसा भी नहीं कि पुस्तकालय कर्मियों के संघ अथवा संगठनों का देश में अभाव या अकाल है. इस वक्त लगभग 100 के आसपास राष्ट्रीय एवं प्रादेशिक संघ मौजूद हैं एवं जब इनका गठन किया जाता है तो बड़े बड़े उद्देश्यों को दर्शाया जाता है परंतु कुछ ऐसा देखा गया है कि लोग इन संघों में चुनाव जीतकर अथवा गैर लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन इनके पदों पर कब्जा करके समाज में अपने रसूख को चमकाने के लिए प्रयोग करते हैं. ऐसा भी नहीं है कि ये संघ कुछ नहीं कर सकते. यदि ये ठान लें एवं निजी स्वार्थों को दरकिनार करके व्यवसाय के कल्याण में कुछ कार्य करें तो कुछ भी कर सकते हैं. अभी हाल ही में कुछ प्रादेशिक संगठनों ने अपने प्रयासों से वर्षों से रिक्त पड़े पदों पर नियुक्तियों खुलवा कर यह साबित कर दिया है कि सोच एवं दिशा यदि सकारात्मक हो तो परिणाम भी अच्छे निकलते हैं. परंतु ऐसे उदाहरण कुछ ही हैं नगण्य है.
धीमे-धीमे देश के विभिन्न महत्वपूर्ण सरकारी पदों पर गैर पुस्तकालय विशेषज्ञों की नियुक्ति यह दर्शाती है कि पुस्तकालय व्यवसाय के लोग एवं उनके संगठन कितने कमजोर एवं असहाय हो चुके हैं. वर्तमान में संघों के सबसे अधिक महत्वाकांक्षी कार्यों में से है वर्ष में एक या दो संघर्षों का आयोजन करना ताकि मिलन समारोह हो सके और पुनः उस संगठन पर काबिज होने के लिए गुणा भाग कर सकें.
संगठनों का उत्तरदायित्व नई तकनीकी से पुस्तकालयकर्मियों को अवगत कराना, नए पुस्तकालयों की स्थापना करवाना, स्थानीय, प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर पुस्तकालय कर्मियों का सकारात्मक नेतृत्व करना, उनके अधिकारों की सुरक्षा निश्चित करना है, रिक्त पड़े पदों पर नियुक्ति हेतु शासन में मजबूती से अपना पक्ष रखना एवं नए पदों के सृजन कराने हेतु भागीरथी प्रयास करना है. एवं विशेष रूप से गैर सरकारी संस्थानों में कार्यरत पुस्तकालय कर्मियों के उत्थान हेतु कार्य करना ना कि व्यक्तिगत उत्थान हेतु संगठनों के उच्च पदों पर काबिज होकर अपने ही लोगों का शोषण करने. अभी हाल में ही देश के गुजरात प्रान्त में स्थित एक प्रतिष्ठित, संस्था के निदेशक के पद पर गैर पुस्तकालय विशषज्ञ की नियुक्ति की सोशल मीडिया में भागी प्रतिक्रियाएं आ रही है, परंतु सिर्फ प्रतिक्रिया करने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है.
यदि हालात ऐसे ही रहे तो स्थिति आने वाले समय में और भी गंभीर होने वाली है. संगठनों को अपनी सोच में सकारात्मकता का समावेश करना होगा एवं पुस्तकालय जगत के उत्थान हेतु ईमानदारी से भागीरथी प्रयास करने होंगे. सोशल मीडिया पर यदा कदा घड़ियाली आंसू बहाने से काम नहीं चलने वाला है. आत्ममंथन की जरूरत है. आवश्यकता है यह सोचने की, कि क्या इस प्रकार वे अपनों के साथ न्याय कर रहे हैं.
इस वक्त देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी जी द्वारा संसद में कही गई कुछ पंक्तियां याद आ रही है, उन्होंने कहा था ” सरकारें आएँगी और जाएंगी, पार्टियां बनेगी बिगड़ेगी मगर ये देश रहना चाहिए इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए”. कर्मियों का विश्वास प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय संगठनों से टूट रहा है, आस्था डगमगा रही है, एवं मोहभंग हो रहा है, विश्वसनीयता कम हो रही रही है. ऐसे में आवश्यकता है कि एक नई सकारात्मक ऊर्जा का संचालन किया जाए ताकि संघ अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सके. आवश्यक है इस व्यवस्था से जुड़े लोगों के उत्थान के लिए पूरी इमानदारी से कार्य किए जाएं एवं उनकी हक की लड़ाई में अपनी जिम्मेदारियों का पालन किया जाए.” हमारे भाव की ताकत कभी तो रंग लाएगी इसी धुन में उबलते जा रहे हैं. ”
(लेखक डा. ऋषि तिवारी, बिमटेक ग्रोटर नोएडा में लाइब्रेरियन हैं और पुस्तकालयों की स्थापना एवं विकास के लिए कार्य कर रहे हैं।)