नई दिल्ली (India CSR): सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जातियों (SC) के आरक्षण में उप-वर्गीकरण को अनुमति दी है। यह निर्णय देश भर में व्यापक चर्चा का विषय बन गया है। संविधान पीठ के 6:1 बहुमत से लिए गए इस फैसले का उद्देश्य उन समूहों को लाभ पहुंचाना है, जो मौजूदा आरक्षण नीति के बावजूद हाशिए पर रहे हैं।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
इस फैसले पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने प्रतिक्रियाएँ दी हैं। लोजपा (आर) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने सुप्रीम कोर्ट से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है, जबकि कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इसे ‘ऐतिहासिक’ करार दिया है।
अनुसूचित जातियों का उप-वर्गीकरण क्या है?
राज्यों ने अदालत में तर्क दिया है कि अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ समूह ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है। विभिन्न रिपोर्टों में यह असमानता उजागर हुई है, जिसके आधार पर विशेष कोटा बनाए गए हैं। आंध्र प्रदेश, पंजाब, तमिलनाडु और बिहार ने सबसे पिछड़े दलित समूहों के लिए विशेष कोटा लागू किया है। 2007 में, बिहार ने महादलित आयोग का गठन किया ताकि अनुसूचित जातियों के भीतर सबसे पिछड़ी जातियों की पहचान की जा सके।
तमिलनाडु में, अरुंधतियार जाति को अनुसूचित जाति कोटे के तहत तीन प्रतिशत कोटा दिया गया है। 2000 में, आंध्र प्रदेश ने 57 अनुसूचित जातियों को उप-समूहों में पुनर्गठित किया और 15% अनुसूचित जाति कोटा को उनकी जनसंख्या के अनुपात में बांटने का कानून पारित किया। हालांकि, इस कानून को 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित कर दिया था।
पंजाब में भी ऐसे कानून हैं जो अनुसूचित जाति कोटे में वाल्मीकि और मजहबी सिखों को वरीयता देते हैं। इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और ताजा निर्णय इसी के चलते आया है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायधीशों की संविधान पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा कि राज्य अनुसूचित जातियों में उप-वर्गीकरण कर सकते हैं। इस फैसले का मतलब है कि राज्य SC श्रेणियों के भीतर अधिक पिछड़े लोगों की पहचान कर सकते हैं और उन्हें अलग कोटा दे सकते हैं।
यह फैसला भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुनाया। इस फैसले के जरिए 2004 के ईवी चिन्नैया मामले में दिए गए पांच जजों के फैसले को पलट दिया गया है। 2004 के निर्णय में कहा गया था कि SC/ST में उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
फैसले के प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन राज्यों के लिए महत्वपूर्ण है जो कुछ अनुसूचित जातियों को आरक्षण का व्यापक लाभ देना चाहते हैं। अदालत ने यह स्पष्ट किया है कि अनुसूचित जातियाँ एक समान वर्ग नहीं हो सकतीं। अब राज्यों को अपने हिसाब से आरक्षण पर कानून बनाने का मौका मिलेगा। उप-वर्गीकरण की यह रणनीति पंजाब में वाल्मीकि और मजहबी सिख, आंध्र प्रदेश में मडिगा, बिहार में पासवान, यूपी में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतियार समुदाय को प्रभावित करेगी।
पिछले सुप्रीम कोर्ट के फैसले
2004 में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुसूचित जातियों की सूची में किसी तरह का बदलाव करने का अधिकार केवल राष्ट्रपति को है और राज्यों को इसमें किसी तरह का हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
मामले की शुरुआत
1975 में, पंजाब सरकार ने 25% अनुसूचित जाति आरक्षण को दो श्रेणियों में बांट दिया। वाल्मीकि और मजहबी सिख समुदायों के लिए सीटें आरक्षित की गईं। यह अधिसूचना तीन दशक तक लागू रही। कानूनी अड़चन तब उत्पन्न हुई जब 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के एक समान कानून को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
दोनों पक्षों की दलीलें
पंजाब के एडवोकेट जनरल गुरमिंदर सिंह: ने तर्क दिया कि राज्य संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियों में बदलाव कर सकते हैं। संविधान का अनुच्छेद 16(4) राज्य को पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की अनुमति देता है, जिनका सरकारी सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
पूर्व अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल: ने कहा कि उप-वर्गीकरण के बिना समाज का सबसे कमजोर वर्ग पीछे रह जाएगा और आरक्षण का उद्देश्य विफल हो जाएगा।
प्रतिवादियों के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े: ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति सूची में शामिल सभी समुदाय छूआछूत का शिकार हुए हैं और संविधान सभा ने यह तुलना करने का विकल्प नहीं अपनाया कि किसे सबसे ज्यादा नुकसान हुआ।
आपने क्या समझा
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अनुसूचित जातियों के आरक्षण में उप-वर्गीकरण की अनुमति देने के रूप में आरक्षण नीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन है। इसका उद्देश्य अनुसूचित जातियों के भीतर असमानताओं को दूर करना है, लेकिन इससे राजनीतिक लाभ और पिछड़ेपन के मापदंडों को लेकर सवाल भी उठते हैं। इस ऐतिहासिक फैसले के राजनीतिक और सामाजिक परिणाम आने वाले दिनों में स्पष्ट होंगे।
(इंडिया सीएसआर हिंदी समाचार सेवा)