सुप्रीम कोर्ट का निर्णय, हालांकि सामाजिक सौहार्द के दृष्टिकोण से समझा जा सकता है, रचनात्मक स्वतंत्रता के लिए एक चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है।
भारत, जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करते रहा है, हमेशा से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपनी लोकतांत्रिक नींव का एक अभिन्न अंग मानता रहा है। संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) प्रत्येक नागरिक को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है। फिर भी, हाल के वर्षों में इस स्वतंत्रता पर कई तरह के सवाल उठे हैं, विशेष रूप से तब जब बात कार्टूनिस्टों, व्यंग्यकारों और रचनात्मक कलाकारों की आती है। बीते दिनों, सुप्रीम कोर्ट ने इंदौर के कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से संबंधित एक विवादास्पद कार्टून बनाया था। इस मामले ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे पर सवाल उठाए हैं, यह भी विचार करने को मजबूर किया है कि क्या सरकार और समाज की संवेदनशीलता रचनात्मक स्वतंत्रता को सीमित कर रही है।
हेमंत मालवीय मामला
इंदौर के कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय ने 2021 में, कोविड-19 महामारी के दौरान, फेसबुक पर एक कार्टून पोस्ट किया था, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, RSS और भगवान शिव से संबंधित सामग्री थी। इस कार्टून को कुछ लोगों ने आपत्तिजनक माना, जिसके बाद उनके खिलाफ मध्य प्रदेश पुलिस ने भारतीय दंड संहिता (IPC) और अब भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत मामला दर्ज किया। मालवीय ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिए याचिका दायर की, लेकिन हाई कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। इसके बाद, मालवीय ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
14 जुलाई 2025 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अरविंद कुमार की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। कोर्ट ने मालवीय को गिरफ्तारी से अंतरिम राहत देने से इनकार कर दिया और तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा, “कुछ कलाकार, कार्टूनिस्ट और स्टैंड-अप कॉमेडियन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हैं। इनका रवैया असंवेदनशील होता है।” कोर्ट ने कार्टून को “भड़काऊ” और “अपरिपक्व” करार दिया, यह कहते हुए कि इस तरह की अभिव्यक्तियाँ सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ सकती हैं। मामले की अगली सुनवाई 15 जुलाई 2025 को निर्धारित की गई।
अभिव्यक्ति बनाम सामाजिक सौहार्द
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने एक बार फिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक सौहार्द के बीच तनाव को उजागर किया है। भारत में, जहाँ सांस्कृतिक और धार्मिक संवेदनशीलताएँ गहरी हैं, कार्टून और व्यंग्य जैसे रचनात्मक माध्यम अक्सर विवादों के केंद्र में रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह स्पष्ट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं है और इसे संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत निर्धारित “उचित प्रतिबंधों” के दायरे में रहना होगा। इन प्रतिबंधों में सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, और देश की एकता और अखंडता शामिल हैं।
मालवीय की ओर से पेश वरिष्ठ वकील वृंदा ग्रोवर ने तर्क दिया कि कार्टून आपत्तिजनक हो सकता है, लेकिन यह अपराध की श्रेणी में नहीं आता। उन्होंने जोर दिया कि कला और व्यंग्य का उद्देश्य समाज को आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखना है, न कि हिंसा या वैमनस्य को बढ़ावा देना। हालांकि, कोर्ट ने इस दलील को खारिज करते हुए कहा कि ऐसी अभिव्यक्तियों से सामाजिक सौहार्द को खतरा हो सकता है, और बाद में माफी माँगने से इसका समाधान नहीं होता।
कार्टूनिस्टों से डर है?
यह पहली बार नहीं है जब किसी कार्टूनिस्ट को अपनी रचनात्मकता के लिए कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ा हो। इतिहास में कई उदाहरण हैं, जैसे कि 2012 में कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को उनके कार्टूनों के लिए राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। उस समय भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर व्यापक बहस छिड़ी थी। हाल के वर्षों में, कार्टूनिस्टों और व्यंग्यकारों पर बढ़ते दबाव ने यह सवाल उठाया है कि क्या सरकार और सत्ताधारी दल रचनात्मक आलोचना से असहज हैं।
यह चिंताजनक है कि सरकार और समाज का एक वर्ग कार्टून विधा को रचनात्मक अभिव्यक्ति को खतरे के रूप में देखता है। कार्टून, जो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर हल्के-फुल्के ढंग से टिप्पणी करने के माध्यम के रूप में उपयोग होता है, अब यह कार्टूनिस्टों के लिए गंभीर कानूनी अड़चनों का कारण बन सकता है।
सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संरक्षक रहा है, लेकिन हाल के कुछ निर्णयों ने इस स्वतंत्रता के दायरे को सीमित करने की प्रवृत्ति दिखाई है। मालवीय मामले में कोर्ट की टिप्पणी कि “कार्टूनिस्ट और स्टैंड-अप कॉमेडियन असंवेदनशील हैं” ने कई लोगों को हैरान किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई मामलों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का समर्थन किया है। उदाहरण के लिए, 1985 के श्रीराम फूड्स एंड फर्टिलाइजर्स मामले में कोर्ट ने कहा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतंत्र की आधारशिला है। लेकिन मालवीय मामले में कोर्ट का रुख यह दर्शाता है कि सामाजिक सौहार्द को बनाए रखने के नाम पर स्वतंत्रता को नई परिभाषा दी जा रही है।
वर्तमान परिदृश्य और सामाजिक प्रभाव
वर्तमान में, सोशल मीडिया ने कार्टून और व्यंग्य को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाने का एक शक्तिशाली मंच प्रदान किया है। लेकिन इसके साथ ही, यह विवादों को भी तेजी से बढ़ाता है। मालवीय का कार्टून फेसबुक पर वायरल हुआ, जिसके बाद कुछ समूहों ने इसे आपत्तिजनक ठहराया।
इसके अलावा, सरकार और सत्ताधारी दलों की ओर से ऐसी सामग्री के खिलाफ त्वरित कानूनी कार्रवाई भी चिंता का विषय है। यह धारणा बन रही है कि सरकार आलोचना के प्रति असहिष्णु हो रही है, विशेष रूप से तब जब वह रचनात्मक रूप में सामने आती है। कार्टून, जो कभी भारत में राजनीतिक और सामाजिक टिप्पणी का एक लोकप्रिय और स्वीकार्य माध्यम था, अब परेशानी के कारण माने जा रहे हैं।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में कार्टूनिंग का एक समृद्ध इतिहास रहा है। शंकर पिल्लई, जिन्हें भारतीय कार्टूनिंग का जनक माना जाता है, ने अपनी पत्रिका शंकर्स वीकली में जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसे नेताओं पर तीखे व्यंग्य किए। उस समय, नेताओं ने इन कार्टूनों को न केवल सहन किया, बल्कि कई बार उनकी सराहना भी की। नेहरू ने स्वयं कहा था कि “शंकर, मुझे इतना सख्त मत मारो!” यह दर्शाता है कि उस दौर में आलोचना को हल्के-फुल्के ढंग से लिया जाता था। लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल उलट है।
(इंडिया सीएसआर हिंदी)