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पुस्तकालय और समाज: पुस्तकालय का उद्देश्य एवं बढ़ता सामाजिक महत्व – 2024 । प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी निबंध

इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं कि दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करनेवाले व्यक्तियों में से अधिकांश उत्तम पाठक तथा सूचना-संपन्न व्यक्ति होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति पुस्तकालयों का उपयोग करनेवाले, पुस्तकों के प्रेमी और पुस्तकालयों के प्रशंसक होते हैं।

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पुस्तकालय और समाज
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पुस्तकालय और समाजः समाज एवं राष्ट्र के विकास में पुस्तकालयों के बढ़ते महत्व को उजागर करने वाला अति महत्वपूर्ण निबंध

“It is a better proof of education to know how to use a library than to possess a university degree.”

किसी को कितनी उत्तम शिक्षा मिली है, इसका पता इससे नहीं लगाया जा सकता कि उसके पास किसी विश्वविद्यालय की उपाधि है या नहीं; अपितु इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे पुस्तकालय का उपयोग करना आता है या नहीं । – सर साइरिल नारवुड

A. भूमिका

समाज के सर्वोंन्मुखी विकास में पुस्तकालयों का महत्वपूर्ण योगदान है।

गेराल्ड जानसन ने अपनी पुस्तक “पब्लिक लाइब्रेरी सर्विसेज लिखा है, “विश्व के सर्वोंत्म विचारों को जानने का सबसे तेज और सबसे सरल माध्यम सार्वजनिक पुस्तकालय है।”

[The quickest and easiest access to the world’s best thought is through public library.]

पुस्तकालय विश्व के महानतम विचारों का आगर है इसमें दो राय नहीं। विश्व के महानतम विचार पुस्तकों में ही संकलित होते हैं।

इसीलिए पुस्तक को ईश्वर की महानतम कृति, अर्थात् मनुष्य की महानतम कृति कहा गया है। (Books are the greatest creation of the God,i.e., the human being.)

पुस्तकालय ही एक ऐसा स्थान है जहा गहन ज्ञान से परिपूर्ण पुस्तकें व्यवस्थित रूप से पाठकों के उपयोग के लिए रखी जाती हैं। इस प्रकार मनुष्य के व्यक्तित्व के विस्तार में पुस्तकालयों का योंगदान अनुपम है। पुस्तकालयों के योगदान की चर्चा मुख्यतः निम्नांकित दो बिदुओं के अंतर्गत की जा सकती है-

(1) पुस्तकालय : शिक्षा एवं सूचना संचार का माध्यम,
(2) पुस्तकालय : एक सामाजिक तथा सांस्कृतिक संस्थान

A.1 पुस्तकालय : शिक्षा एवं सूचना संचार का माध्यम

पुस्तकालय शिक्षा के प्रसार तथा सूचना के संचार का प्रभावशाली माध्यम है।

शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है। जीवन के प्रारंभ से जीवन के अंत तक मनुष्य शिक्षा की प्रक्रिया से गुजरता रहता है। इस क्रम में मनुष्य दो प्रकार की शिक्षा महण करता है, औपचारिक तथा अनौपचारिक ।

पुस्तकालय इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं में प्रमुख भूमिका निभाता है। यही कारण है कि पुस्तकालय को लोक विश्वविद्यालय (People’s University) भी कहा जाता है। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तकालयों की भूमिका की चर्चा नीचे की गई है।

*****

A.1.1 औपचारिक शिक्षा और पुस्तकालय

औपचारिक शिक्षा (Formal education) के दौरान मनुष्य किसी विशेष पाठ्यक्रम के आधार पर किसी विशेष स्तर की शिक्षा प्राप्त करता है। यह शिक्षा शिक्षण संस्थानों; जैसे विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तथा शोध-संस्थानों के माध्यम से मिलती है। छात्र संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि, नए शैक्षिक संस्थानों की स्थापना, नए पाठ्यक्रमों का प्रादुर्भाव, शिक्षा का असीमित विस्तार, शिक्षण-पद्धति में नए प्रयोग, ज्ञान का विस्फोट, पुस्तकों की बढ़ती संख्या, ज्ञान का पुस्तकेतर रूप (non-book material) (जैसे वीडियो टेप, माइक्रोफिल्म आदि) में आगमन आदि कुछ ऐसे तत्त्व है जिनके कारण औपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तकालयों का महत्त्व और भी बढ़ गया है। आज पुस्तकालय हर प्रकार के शिक्षण संस्थान का एक अपरिहार्य अंग बन चुका है।

शिक्षाशास्त्री तथा विद्वान् इस बात से सहमत हैं कि “किसी को कितनी उत्तम शिक्षा मिली है, इसका पता इससे नहीं लगाया जा सकता कि उसके पास किसी विश्वविद्यालय की उपाधि है या नहीं; अपितु इस बात से लगाया जा सकता है कि उसे पुस्तकालय का उपयोग करना आता है या नहीं।” (It is a better proof of education to know how to use a library than to possess a university degree.) (1)

इसी प्रकार यूनाइटेड किंगडम (U.K.) की ‘यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमेटी’ ने सन् 1921 में लिखा था –

“किसी विश्वविद्यालय की कार्यक्षमता तथा प्रकृति इस बात से मापी जा सकती है कि उसके पुस्तकाय का रख-रखाव कैसा है एक समृद्ध पुस्तकालय न केवल शिक्षण और पठन का ही आधार है, बल्कि शोध के लिए भी आवश्यक है, जिसके बिना मनुष्य के ज्ञान-भंडार में वृद्धि नहीं की जा सकती।

” (The character and efficiency of a university may be gauged by its treatment of its essential organ, the library…An adequate library is not only the basis of all teaching and study, it is the essential condition of research without which additions can not be made to the sum of human knowledge. (2)

शिक्षा की पद्धति में परिवर्तन के बाद तो पुस्तकालयों के महत्त्व में और भी अधिक वृद्धि हो चुकी है। औपचारिक शिक्षा पहले शिक्षकों के अभिभाषण पर आधारित थी। शिक्षक भाषण देते थे तथा छात्र उनको सुनकर कुछ याद करने का प्रयास करते थे। इस प्रकार शिक्षा एकमुखी थी, जिसमें छात्र कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभा पाते थे। पर आज की शिक्षा एकमुखी नहीं रह गई है।

आजकल शिक्षक छात्रों को पाठ की मूलभूत प्रकृति तथा मूलभूत विशिष्टताओं से अवगत कराकर उन्हें स्वयं पढ़ने के लिए प्रेरित करता है।

यूनाइटेड किंगडम (U.K.) की पैरी कमेटी ने इस बारे में लिखा है, “केवल व्याख्यान देने और पाठ्य-पुस्तकें पढ़ाने की पद्धति से आज के युग में काम नहीं चल सकता,” तथा इस बात की अनुशंसा की है,

“अगर विश्वविद्यालय-शिक्षा का मुख्य उद्देश्य छात्रों को अपना काम स्वयं करने की प्रेरणा देना है (अर्थात् आत्मनिर्भर बनाना है) तो छात्रों को व्याख्यान के स्थान पर (पुस्तक) पठन को तब तक प्राथमिकता देनी चाहिए जब तक व्याख्यान का स्तर उपलब्ध साहित्य से उत्कृष्ट न हो।” (2)

(If one of the main purposes of university education is to teach students to work on their own, reading by students must be preferable to attendance at a lecture unless the lecture is superior in presentation or contents to the available literature.)

अतः आज की औपचारिक शिक्षा अधिक-से- अधिक पुस्तकोन्मुख हो रही है। इस संबंध में हुचिंग ने स्पष्ट किया है, “कोई विश्वविद्यालय उतना ही अच्छा होता है जितना अच्छा उसका पुस्तकालय है।” (University is as good as its library.) (3)

*****

पुस्तकालय इन दोनों प्रकार की शिक्षाओं में प्रमुख भूमिका निभाता है। यही कारण है कि पुस्तकालय को लोक विश्वविद्यालय (People's University) भी कहा जाता है। औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तकालयों की भूमिका की चर्चा नीचे की गई है।

A.1.2 अनौपचारिक शिक्षा और पुस्तकालय

औपचारिक शिक्षा के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार की शिक्षा अनौपचारिक शिक्षा है। मनुष्य केवल विद्यालयों आदि में ही शिक्षा नहीं ग्रहण करता। दूसरी ओर विद्यालय, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा समाप्त करने के बाद शिक्षा की प्रक्रिया समाप्त नहीं हो जाती। शिक्षा उसके पहले और उसके बाद भी चलती रहती है तथा मनुष्य उसे हासिल करने का प्रयास आजीवन करता रहता है।

कुछ ऐसे लोग भी हैं जो किसी कारणवश औपचारिक शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। छोटे-बड़े, बालक-वृद्ध, छात्र-विद्वान्, व्यापारी, व्यवसायी, नौकरीपेशा आदि हर प्रकार के व्यक्ति पुस्तकालयों के माध्यम से अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं और कर रहे हैं। औपचारिक शिक्षा ज्ञान का एक तालाब है जिसकी सीमा होती है; परंतु अनौपचारिक शिक्षा ज्ञान का असीम

सागर है। इस प्रकार की शिक्षा बेहतर रूप से किसी पुस्तकालय के माध्यम से ही मिल सकती है। इसीलिए पुस्तकालय को लोक-विश्वविद्यालय भी कहा गया है। शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है। इस दिशा में प्रौढ़ शिक्षा (Adult Education) के क्षेत्र में पुस्तकालय काफी मदद कर सकता है। आजादी के बाद हमारे नेताओं का ध्यान धीरे-धीरे प्रौढ़ शिक्षा की ओर गया और पिछले कुछ दशकों से सरकार ने प्रौढ़ शिक्षा के कार्यक्रम विशाल स्तर पर प्रारंभ किए हैं। प्रौढ़ों को शिक्षा और सूचना (जो शिक्षा का ही अंग है) दिलाने में पुस्तकालयों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

पाषाण युग से प्रौद्योगिक युग तक मानव जाति ने एक लंबी यात्रा तय की है। प्रौद्योगिक युग सूचना के स्तंभों पर टिका है और हमारा आज का समाज सूचनाओं पर आधारित समाज है। आज सूचना का उत्पादन इतनी तीव्र गति से हो रहा है जिसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है।

जीवन का प्रत्येक क्षेत्र सूचना के समुद्र में डुबकियाँ ले रहा है। इतनी अधिक गति से इतनी अधिक सूचनाएँ आने का यह परिणाम हुआ है कि मनुष्य जितना कुछ जानता जा रहा है उससे भी अधिक जानने को बचा रह जाता है। सूचना की इस बाढ़ को अनियंत्रित रखकर इससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। इसीलिए यह आवश्यक है कि सूचनाओं को नियंत्रित कर, उनका विश्लेषण कर, उन्हें विभिन्न वर्गीकृत विषयों में रखकर उनकी पुनर्प्राप्ति (Retrieval) की व्यवस्था की जाए।

यह कार्य केवल पुस्तकालय ही कर सकता है।

उपरि लिखित विवरण से यह स्पष्ट है कि समाज की शिक्षा तथा सूचना संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति में पुस्तकालयों का महान् योगदान है। किसी देश का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी आबादी को किस प्रकार की शिक्षा प्राप्त हो रही है। प्रजातांत्रिक प्रणाली में शिक्षित तथा सूचना प्राप्त नागरिक ही समाज तथा देश के विकास में सक्रिय भूमिका निभा सकता है।

मूढ़, सूचना-विहीन, अशिक्षित, अपने परिवेश से कटे और अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक गतिविधियों से अनभिज्ञ व्यक्ति समाज को सही दिशा में नहीं ले जा सकते। इसीलिए यूनेस्को ने अपने ‘मैनिफेस्टो फॉर पब्लिक लाइब्रेरीज’ में इस बात की घोषणा की है कि सूचनाओं की प्राप्ति का अधिकार मनुष्य का सार्वभौमिक अधिकार है।

वस्तुतः प्रजातांत्रिक समाज में रहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति में यह क्षमता होनी चाहिए कि वह सही समय में सही निर्णय ले सके।

ऐसे निर्णय उसे खेत जोतने से लेकर जनप्रतिनिधियों को चुनने तक, हर समय लेने पड़ते हैं। सूचना-संपन्न व्यक्ति ही सही समय पर सही निर्णय ले सकता है। पुस्तकालय औपचारिक तथा अनौपचारिक दोनों प्रकार की शिक्षा प्राप्त करनेवालों के लिए सहायक है।

इसी कारण “पुस्तकालयों में लोगों की रुचि बहुत बढ़ी है और हमारी यह मान्यता है कि बौद्धिक जीवन के महत्त्व तथा ज्ञान के मूल्यों में लोगों का विश्वास दृढ़ हुआ है। आज लोक पुस्तकालय को स्वस्थ मनोरंजक साहित्य उपलब्ध कराने का ही साधन नहीं माना जाता, बल्कि इसे अब राष्ट्रीय कल्याण की महान् संभावनाओं की प्रेरक शक्ति तथा शिक्षा एवं संस्कृति की प्रगति के मूल आधार के रूप में भी स्वीकार किया गया है।” (4)

अतः आज की औपचारिक शिक्षा अधिक-से- अधिक पुस्तकोन्मुख हो रही है। इस संबंध में हुचिंग ने स्पष्ट किया है, "कोई विश्वविद्यालय उतना ही अच्छा होता है जितना अच्छा उसका पुस्तकालय है।" (University is as good as its library.) (3)

*****

A.2 पुस्तकालय : एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था

सामाजिक संस्था मनुष्य के अंदर धार्मिक, नैतिक, बौद्धिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को उत्पन्न कर उन्हें नीति तथा व्यवहार के साथ जीने की शिक्षा देती है। पुस्तकालय भी एक ऐसी ही सामाजिक संस्था है। किसी संस्था को सामाजिक तभी माना जा सकता है जब उसकी उत्पत्ति तथा उसका विकास समाज के साथ जुड़े हों तथा उसके उद्देश्य सामाजिक (समाजकारित) हों। साथ ही किसी सामाजिक संस्था को जीवित रहने के लिए नई सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल स्वयं को ढालना भी पड़ता है तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं के साथ संबंध रखना पड़ता है। अतः किसी भी सामाजिक संस्था में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक है-

(1) सामाजिक उत्पत्ति और विकास,

(2) सामाजिक उद्देश्य,

(3) सामाजिक व्यवस्था से अनुकूलन,

(4) सामाजिक संस्थाओं से संबंध,

(5) क्रियात्मकता ।

A.2.1 सामाजिक उत्पत्ति और विकास

पुस्तकालय एक सामाजिक संस्था है या नहीं, इस बात को जानने के लिए यह जानना आवश्यक है कि पुस्तकालयों की उत्पत्ति कैसे हुई तथा इसकी उत्पत्ति और विकास में समाज का कितना योगदान रहा है।

पुस्तकालयों की उत्पत्ति तथा विकास में समाज का क्या योगदान है, यह जानने के लिए हमें पुस्तकालयों के विकास का इतिहास देखना होगा। अपनी उत्पत्ति के प्रारंभिक काल में पुस्तकालय व्यक्तिगत संपत्ति माना जाता था। राजा-महाराजा तथा अत्यंत धनी-मानी व्यक्ति ही पुस्तक या ग्रंथ नाम की संपत्ति रख सकते थे। पुस्तकों को ‘आलमारियों में बंद रखा जाता था।

ये तथ्य इस बात की ओर संकेत करते हैं कि प्रारंभ में पुस्तकालय एक सामाजिक संस्था के रूप में कार्य नहीं कर रहे थे। परंतु इसके संतोषप्रद कारण भी हैं। प्राचीनकाल में पुस्तकें हस्तलिखित होती थीं, उनकी सीमित प्रतियाँ उपलब्ध होती थीं, क्योंकि प्रतियों तैयार करना काफी कठिन तथा खचर्चाला काम था। उन्हें राजा-महाराजा ही तैयार करवा सकते थे तथा उनकी सुरक्षा की व्यवस्था भी वे ही कर सकते थे। अगर हस्तलिखित ग्रंथों को बिना किसी व्यवस्था और सुरक्षा के रखने की इजाजत दे दी जाती तो आज हमारी सभ्यता के लिखित अभिलेख नष्ट हो गए होते । आज ये अभिलेख समाज के उपयोग के लिए उपलब्ध है, क्योंकि उनको सुरक्षित रूप से रखा गया था।

  • यह कहना भी सत्य नहीं है प्राचीन समय में पुस्तकों का उपयोग नहीं होता था। उस समय भी विद्वानों को उनके उपयोग की इजाजत थी। इस प्रकार प्रारंभिक काल में पुस्तकों तथा पुस्तकालयों की सुरक्षा करने का यह लाभ हुआ कि अपने शैशव काल में ये नष्ट नहीं हुए। प्राचीन पुस्तकालयों की तुलना छायादार वृक्षों के साथ की जा सकती है जिन्हें बचपन में इसलिए सुरक्षा दी जाती है जिससे बाद में बड़े होकर वे समाज को ज्ञान की छाया प्रदान कर सकें।

मुद्रण-प्रणाली के विकास के साथ ही पुस्तकालयों के इस स्वरूप में परिवर्तन हुआ। पुस्तकों को मनचाही संख्या में मुद्रित किया जाने लगा और तब पुस्तकालयों को समाज के उपयोग के लिए खोल दिया गया। मुद्रण-प्रणाली के साथ धर्म, जो एक सामाजिक विचारधारा है, ने भी पुस्तकालयों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

विभिन्न धर्मों ने अपने मत के प्रचार के लिए मुद्रित सामग्री बाँटी तथा समाज का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए पुस्तकालयों की स्थापना की या उनकी स्थापना में सहयोग दिया। इसके साथ ही लोगों का ध्यान पुस्तक-दान की ओर गया। मनु ने पुस्तक-दान को भी एक महत्त्वपूर्ण दान माना है। साधन-संपन्न लोगों ने पुस्तकालयों को अपनी पुस्तकें दान कर उन्हें धनी बनाया। बौद्ध धर्म में भी पुस्तक-दान को महादान माना गया है।

औद्योगिक क्रांति, सार्वजनिक शिक्षा, पुस्तकालयोन्मुखी शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा तथा बौद्धिक मनोरंजन की विचारधाराओं ने पुस्तकालयों की स्थापना, विकास और उपयोगिता पर बल दिया। इस प्रकार पुस्तकालय की उत्पत्ति और विकास में समाज के प्रत्येक पक्ष तथा प्रत्येक विचारधारा ने एकजुट होकर प्रयास किया।

इसलिए यह कहा जा सकता है कि पुस्तकालय एक सामाजिक संस्था है क्योंकि इसकी उत्पत्ति तथा विकास समाज के योगदान से हुआ। सरकार भी समाज का एक बड़ा और सुनियोजित स्वरूप है। विभिन्न देशों और प्रदेशों की सरकारें भी पुस्तकालयों की स्थापना तथा विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं।

कभी भी उस पर विश्वास न करें जिसने अपने साथ कोई किताब नहीं लाई हो। - लेमनी स्निकेट

A.2.2 सामाजिक उद्देश्य

पुस्तकालयों का उद्देश्य पूर्णतः सामाजिक है। यहाँ पुस्तकों का प्रजातांत्रिक रूप में उपयोग किया जाता है। पुस्तकालय प्रत्येक धर्म, समुदाय, व्यवसाय, उम्र आदि की समान रूप से सेवा करते हैं। इसमें रखी पुस्तकों के उपयोग का समान अधिकार समाज के प्रत्येक सदस्य को है। इससे यह सिद्ध होता है कि पुस्तकालय एक सामाजिक संस्था है। यह समाज के स्वस्थ बौद्धिक विकास को सुनिश्चित करता है।

इसके उद्‌देश्य सामाजिक तथा प्रजातांत्रिक हैं। पुस्तकालय विज्ञान के पाँच सूत्र भी इस पर बल देते हैं।

A.2.3 सामाजिक व्यवस्था से अनुकूलन

पुस्तकालयों का स्वरूप कभी भी हठीला (rigid) नहीं रहा। ये स्वयं को सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल ढालते रहे हैं। प्रत्येक सामाजिक संस्था में इस गुण का होना आवश्यक है तथा पुस्तकालय में यह गुण कूट-कूटकर भरा है। सामाजिक व्यवस्था के परिवर्तन के साथ ही पुस्तकालय ने मुक्त प्रवेश-प्रणाली तथा नई तकनीके अपनाई तथा पुस्तकालयों में जनसंपर्क एवं विस्तार कार्य प्रारंभ किए। आज पुस्तकालय समाज की बौद्धिक, मनोरंजनात्मक, सूचनापरक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति में संलग्न है।

आधुनिक समाज में कंप्यूटर एक महत्त्वपूर्ण स्थान बना चुका है। मानव गतिविधि के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रवेश हो चुका है। पुस्तकालय भी समाज के इस आधुनिकीकरण के साथ स्वयं को आधुनिक बना रहे हैं तथा कंप्यूटर तथा अन्य नवीन उपकरणों एवं तकनीकों को अपनाने की दिशा में कदम बढ़ा रहे हैं। इन सारी बातों से स्पष्ट है कि पुस्तकालयों में सामाजिक व्यवस्था के अनुकूलन का गुण पूर्ण मात्रा में मौजूद है।

A.2.4 सामाजिक संस्थाओं से संबंध

आज का पुस्तकालय सहयोग की भावना में विश्वास रखता है। यह न केवल पुस्तकालयों के बीच परस्पर सहयोग में विश्वास रखता है, बल्कि अन्य सामाजिक संस्थानों; जैसे शिक्षा संस्थाओं, सेवा संस्थाओं, साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से संबंध रखता है, उन्हें सहयोग देता है तथा उनसे सहयोग प्राप्त करता है।

A.2.5 क्रियात्मकता

किसी सामाजिक संगठन को सदा क्रियाशील रहना चाहिए। निष्क्रियता उसकी मृत्यु को इंगित करती है। इस दृष्टि से पुस्तकालय एक स्वस्थ सामाजिक संस्थान है, क्योंकि समाज की सेवा में यह सदा सक्रिय रहता है। पुस्तकालय विज्ञान का पंचम नियम (पुस्तकालय एक वर्द्धनशील संस्था है) इस बात को सिद्ध करता है।

*****

पुस्तकालयों को किसी देश या समाज की सामूहिक चेतना और बुद्धि का प्रतीक माना गया है - राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मु

A.3 पुस्तकालयों को सामाजिक संस्था बनाने के उपाय

एक पुस्तकालय, विशेष रूप से लोक-पुस्तकालय, केवल अध्ययन केंद्र ही नहीं बल्कि एक सामाजिक केंद्र भी है। विश्व के विकासशील देशों में सार्वजनिक पुस्तकालय इस कार्य का पूरी तरह निर्वाह कर रहे हैं। स्वयं को सामाजिक केंद्र बनाने के लिए पुस्तकालय को अपनी गतिविधियों का विस्तार करना चाहिए।

आज के पुस्तकालय का कार्य केवल पुस्तकों का आदान-प्रदान ही नहीं है, उसे विस्तार-कार्य तथा प्रचार कार्य में भी रुचि लेनी है । समय-समय पर पुस्तक तथा अन्य प्रदर्शनियां आयोजित करना आदि कुछ ऐसी गतिविधियाँ हैं जिनसे पुस्तकालय को सामाजिक संस्था का रूप मिलता है। अमेरिका तथा ब्रिटेन के पुस्तकालय इस प्रकार की गतिविधियों में बहुत पहले से रुचि ले रहे हैं।

उदाहरणार्थ, सन् 1930 में अमेरिकन लाइब्रेरी एसोसिएशन ने ऐसे नाटकों की सूची बनाई जिनका मंचन पुस्तकालय-प्रांगण में किया जा सकता था। इंडियाना लाइब्रेरी एसोसिएशन ने सन् 1926 में ‘एक्जिट मिस लिजी फॉक्स’ नामक नाटक का मंचन किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ। इससे पुस्तकालयों की लोकप्रियता भी बढ़ी। पुस्तकालयों की लोकप्रियता बढ़ानेवाले तथा उन्हें सामाजिक संस्था का स्वरूप प्रदान करनेवाले कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-

A.3.1 भाषण

पुस्तकालय-प्रांगण में समयानुसार शास्त्रीय साहित्य, संगीत, कला, लोकप्रिय साहित्य: अपने देश, राज्य, शहर, क्षेत्र, धर्म, नैतिकता, समाज-कल्याण, शिशुओं के लालन-पालन, पारिवारिक सामंजस्य, ज्वलंत समस्याओं (जैसे दहेज प्रथा, सती-प्रथा, वधू-दहन के विपक्ष तथा परिवार नियोजन आदि के पक्ष) पर भाषण के कार्यक्रम आयोजित करना।

A.3.2 प्रदर्शनी

स्थानीय उत्पादन, जैसे-फल, फूल, सब्जी; स्थानीय कलाएँ; जैसे-हस्तशिल्प, पेंटिंग, स्वस्थ बालक आदि से संबंधित प्रदर्शनियाँ आयोजित करना। साथ ही समयानुसार विशेष महत्त्ववाले दिवसों: जैसे-स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस, बाल दिवस, मजदूर दिवस आदि के अवसर पर संबंधित विषयों पर पुस्तक-प्रदर्शनी आयोजित करना।

A.3.3 प्रदर्शन

नाटक, सांस्कृतिक कार्यक्रम, गीति संध्या आदि का पुस्तकालय-प्रांगण में आयोजन ।

A.3.4 प्रतियोगिता

पुस्तकालय के तत्त्वावधान में या पुस्तकालय-प्रांगण में कला प्रतियोगिता, गीत प्रतियोगिता, काव्य पाठ प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता आदि का आयोजन ।

A.3.5 उत्सव

राष्ट्रीय, राजकीय, क्षेत्रीय उत्सवों का आयोजन। साथ ही विभिन्न क्षेत्रों के राष्ट्रीय, राजकीय तथा क्षेत्रीय नेताओं के जन्मदिन पर विशेष कार्यक्रमों का आयोजन ।

A.3.6 चल पुस्तकालय सेवा का प्रारंभ

A.3.7 पुस्तकालय प्रचार

इन सारी गतिविधियों के लिए अपने क्षेत्र के साहित्यकार, शिक्षक, कर्मचारी तथा व्यवसायियों से सहयोग लिया जा सकता है।

*****

A.4 निष्कर्ष

निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पुस्तकालय समाज के लिए अपरिहार्य हैं। ये व्यक्ति को शिक्षित करते हैं तथा सूचनाएँ उपलब्ध कराकर उन्हें जागरूक और बेहतर नागरिक बनाते हैं। इस बात में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं कि दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करनेवाले व्यक्तियों में से अधिकांश उत्तम पाठक तथा सूचना-संपन्न व्यक्ति होते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति पुस्तकालयों का उपयोग करनेवाले, पुस्तकों के प्रेमी और पुस्तकालयों के प्रशंसक होते हैं। जिस समाज में पुस्तकालय संस्कृति-संपन्न होगा उसमें प्रजातांत्रिक मूल्य अधिक प्रखर होंगे। किसी ने सच ही कहा है कि समाज में अधिक संख्या में पुस्तकालय खोलकर पुलिस स्टेशनों की संख्या में कमी की जा सकती है।

*****

संदर्भः

  1. सर साइरिल नारवुड का कथन, राबर्ट स्नेन द्वारा ‘टेस्ट क्वेश्चंस फॉर स्कूल लाइब्रेरीज’ (लंदन, 1958) में उद्भुत ।
  2. यूनिवर्सिटी ग्रांट कमेटी, यू, के कमेटी ऑन लाइब्रेरीज, चेयरमैन : थोमस पैरी (लंदन, हर मेजेस्टिस स्टेशनरी ऑफिस, 1967), रिपोर्ट, पृ. 11 ।
  3. हुचिंग, एफ.जी.बी.: लाइब्रेरियनशिप (कुआलालमपुर, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1959) पू. 5 ।
  4. ….the public interest in libraries has greatly increased and we believe that there is now a far healthier belief in the value of knowledge and in the importance of intellectual life. The public library is no longer regarded as a means of providing casual recreation of an innocent but somewhat important character, it is recognised as an engine of great potentialities for national welfare…” -केन्योन कमेटी: रिपोर्ट ऑन पब्लिक लाइबेरीज इन इंग्लैंड एड वेल्स (यूके, बोर्ड ऑफ एजूकेशन, 1927)

नोटः

(इस आलेख को डा. पांडेय एस.के. शर्मा द्वारा रचित किताब – पुस्तकालय और समाज (ग्रंथ अकादमी) से लिया गया है। इस आलेख के सार्वजनिक महत्व को देखते हुए लिया गया है। इस आलेख को यहाँ शामिल करने के पीछे किसी तरह का कोई व्यावसायिक उद्देश्य नहीं है। अतः इसे जनकल्याण में उपयोगिता और महत्व स्वीकार करते हुए लिया गया है। इस आलेख के कापीराइट प्रकाशक एवं लेखक अथवा लेखकों के पास सुरक्षित है।)

(इंडिया सीएसआर)

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